चाँद का गीत

उस वक्त वहाँ दुनिया भर का शोर था। कितने ही लोग झूम रहे थे अपनी अपनी मस्ती में और कितने ही एक दूसरे से अठखेलियों में उलझे थे। वहीं खड़ा था मैं, यूँ तो अकेला था और इस दुनिया में खोया भी। किसी झरने से गिरते पानी सा जीवन बह रहा था हर पल में। कभी कभी भीड़ में भी कोई संगीत सुनाई देता है और वो गीत जीवन की दिशा खुद की और मोड़ लेता है। ये वही पल था। एक धुन जो पहले कभी नहीं सुनी थी, एक गीत जो पहले कभी न सुना था और एक दृश्य जो पहले कभी नहीं देखा था। इतनी भीड़ और बाज़ार में एक क्षण के हज़्ज़ारवें हिस्से में मैं खुद को दुनिया के किसी एक छोर पर यकायक ही अकेला महसूस कर रहा था और किसी सुखद अनंत अंधेरे में एक धुन और उसमें लिपटे कुछ शब्द मुझे ऐसे छू रहे थे मानो समय की मधुरतम छटा यही हो। समय के साथ समस्या ये भी है की इसे बीत जाना होता है।

उस क्षणिक रास से किसी के होने के अहसास ने जगा दिया। ऐसा हो ही नहीं सकता था की उसे हल्का सा भी अनुमान हो मेरे लगाव का। मगर उस पल ने सब ही पलट दिया। मुझे लगा कि उसने सवाल पूछा है। मुझे महसूस हुआ की ये इजहार है शायद। वो चुप थी। एक हाथ की दूरी पर थी पर ये दूरी कभी कम नहीं हो सकती थी। हम बात तो करते थे पर वो बात नहीं करते थे जो मैं उसके लिए रोज़ खुद से करता था। गीत समझ कम आया पर संगीत और समय ने भरमा दिया। गीत ख़त्म हुआ तो मन हुआ की काश ये कुछ पल अभी के अभी वापिस आ जायें। उस दिन मन की सुन ली। उसने वो गीत फिर दोहराया। मैं इस बार गीत सुन रहा था। मैंने हर शब्द गौर से सुना। इसमें ना प्रेम का बयान था ना इजहार ही। पर पता नहीं क्या ही था इस गीत की धुन में। मुझे बस इतना अहसास था की उस पल जितना मैं इस गीत में हूँ, वो भी उतनी ही थी।

हम दोनो ही स्थिर थे, पर भाव समय लांघ कर आगे पग धर गये थे। वो पल थे जब हमारा पहली बार संयोग हुआ। बिना एक दूसरे को देखे भर, बिना एक दूसरे को छुए, बिना एक दूसरे के साथ हुए। यही वो संयोग है जिसने अनन्त बार आकाश पाताल एक कर क्षितिज के होने को निरर्थक कर दिया है। पल भर पहले दुनिया किसी शोर में थी और मैं इसका हिस्सा था और अब मैं किसी शोर में था इस दुनिया से कोशों दूर। एक गीत, एक धुन, एक पल, एक ख़ामोश चेहरा, एक भाव, एक दृश्य, एक शख़्स एक ऐसी पटकथा लिख सकता है जिसको साँस के अंत तक संजोया जा सकता है। पर हर पटकथा में पर्दा भी गिरता है। हर कथा का अंत भी होना ही होता है। कथा जीते हुए नायक इस बात का अहसास नहीं रखता की पर्दा गिरना तय है।

यकीनन नायक वही है जो इस सत्य को नकार दे की कभी कथा समाप्त भी हो जाएगी। पर कथा अगर प्रेम कथा हो जाए तो नायक की नियति पर्दा नहीं कोई और गीत तय करता है जो नायिका को किसी और नदी के तट पर किसी अजनबी के सुशोभित भाव का अद्भुत दृश्य करवा जाये। प्रेम कहानियाँ रुकती कहाँ हैं। नये अनुभव नयी तरंग उत्पन्न करते हैं। नये गीत और नयी धुन बजती हैं। पिछले गीत मध्धम् हो जाते हैं या कि गीत बदल जाते हैं। चाँद के गीत, बस चाँद वही रहता है परंतु समय और धुन विपक्षी हो जाते हैं। नायक इस संतोष में जी सकता है की प्रेम ही तो है उसे, चाहे किसी से भी हो। नायक के पास उस अमूल्य प्रेम से ना प्रेम बचता है ना घृणा। प्रेम में वो खुद को स्वीकार नहीं कर पता और घृणा से प्रेम सम्भव नहीं है।

कथा इस सार पर ख़त्म होती है की जिसे एक इन्सान से प्रेम हुआ हो, वो सारी सृष्टि से प्रेम कर सकता है। जिसे एक बार घृणा हुयी हो, वो सृष्टि भर से घृणा कर सकता है। पहला अहसास ही ‘अहसास’ होता है, उसके बाद तो सब पाठ हैं। दूसरी बार तो पहली बार के अनुभव का मूल्यांकन होता हैं और समय सीमा के हिसाब से ये तय होता है कि भावना कितनी डाली जाये जोकि स्वाद बना रहे। पर्दा गिरना ही पर्दा उठने की अनिवार्यता है।