मिट्टी के खिलौने सा एक पुतला गढ़ा मैंने
और सपने संजोकर के, जीवन भी भरा उसमें
और सपने संजोकर के, जीवन भी भरा उसमें
हर सुबह वही चेहरा हर रात वही सपने
खुद को पुतले मे ढाला, पुतले को खुद में मैने
और जब पुतला टूटा, कुछ खींच ले गया मुझसे
कुछ जिन्दा हिस्सा खुद का रख छोड़ा था उसमें
बैठ अंधेरे में सूने में रात बितानी होंगी
ये खुद के हिस्से से खुद को कैसा तोड़ा मैंने
- नवीन कुमार ‘जन्नत’