निर्मल चंचल मृदु जल सी तुम
कोमल पावन सावन सी तुम
अभिव्यक्त रही नयनों से सदा
की गर मैं सहर तुम निशा सखी
उपहासित हूँ निज मन से सखी
अव्यक्त रहा मेरा प्रेम सखी
कोमल पावन सावन सी तुम
अभिव्यक्त रही नयनों से सदा
की गर मैं सहर तुम निशा सखी
उपहासित हूँ निज मन से सखी
अव्यक्त रहा मेरा प्रेम सखी
माना मैं सहर तुम निशा सखी
कब यत्न किया की ढल जाऊँ
उपहासित हूँ निज मन से सखी
की गागर में सागर चाहूँ
एक नज़र कभी देखोगे तुम
तब इस दुःख से मुक्ति पाऊं
भर नजर कभी तो देख सखी
अव्यक्त रहा मेरा प्रेम सखी
- नवीन कुमार ‘जन्नत’