तुम्हारे जो निशान बाक़ी थे
वक्त से धुल के निखर आये हैं,
शब्द धुंधले भी नहीं होते वरन्
तेरे चेहरे से सँवर आये हैं,
यही सोचा था कहीं जी लेंगे
ठीक से मर भी कहाँ पाये हैं,
तेरे आँसू जो तब नहीं रोके
मेरी “जन्नत” में उतर आये हैं
खैर अब शिकवा गिला कोई नहीं
हम समंदर से हार आये हैं
नवीन कुमार “जन्नत”