तारीखें याद दिलाती भी रही | Poetry by Naveen Kumar

रात दीपक जलाना भूल गए
घर में एक घर बनाना भूल गए

जो पहरों पहरा दिया करते थे
कई हफ्तों से आना भूल गए

बात दुनिया से अलग है भी नहीं
बात क्या है बताना भूल गए

किसी मौसम के फूल जैसे ही
टूट कर खिलखिलाना भूल गए

दर्द में पाट कर के पानी को
आँसुओं का जलाना भूल गए

कोई उस पार शायद उतरा हो
इसी डर से डराना भूल गए

तारीखें याद दिलाती भी रही
एक ‘जन्नत’ भूलाना भूल गए

- नवीन कुमार ‘जन्नत’