रक़्स | Poetry | Kaho Jannat

मुझी से मेरा नक़्स पूछते हैं
पूछते हैं कि मेरे नक़्स सा है

वो जो आँखों के सामने है तिरे
कहीं कहीं से मेरे अक़्स सा है

वो जो तबीयत जुदा सी दिखती है
उसी की धड़कनों का रक़्स सा है

जो तेरी आंख का पागलपन है
कोई ‘जन्नत’ सरीखा शख़्स सा है

नवीन कुमार ‘जन्नत’