फ़र्क़ | Poetry | Naveen Kumar Jannat

इलाज करते करते
बीमार हो रहा हूँ
खुद अपनी शायरी का
शिकार हो रहा हूँ

इ्श्क और काफिरी मे
फ़र्क़ इतना नजर है
इक सांस जी रहा हूँ
इक सांस मर रहा हूँ

तुम्हें सुकून मिले
मैं रहूं ना भी रहूं
मेरी बेचैनी को
यही बतला रहा हूँ

मोहब्बत तुमसे मगर
बहुत जरूरी थी
हर इक इन्सान से अब
थोड़ा घबरा रहा हूँ