कच्चे पैर | Poetry | Naveen Kumar Jannat

गाँव में, जिस घर की छाँव में
दादी ने नाज उठाये थे
जिस नीम के पेड़ पर चढ़कर
सारे मौसम बिताये थे
जिन लोगों की कहानियों में
बचपन से रस्ते दिखाये थे
जिन कच्चे रस्तों पर गिरकर
साईकिल सीख पाये थे
जिन दीवारों को फाँदकर
खेलने जाया करते थे
जिन खेतों में घूमकर
सरसों की डाली खाया करते थे
जिस स्कूल में हर दिन
कच्चे पैंरो जाया करते थे
वो दोस्त जिसे नये साल पर
ग्रीटिंग पकड़ाया करते थे
वो खुली जगह जहां छुट्टियों में
झूले बंध जाया करते थे
वो खाट जिसे हर दूजे दिन
मिलकर कसवाया करते थे
आँधी आये तो लौटा भर
पानी से डराया करते थे
बारिश आये तो गली गली
काग़ज़ तिरवाया करते थे
चप्पल से पहिये काटकर
गाड़ी बुन लाया करते थे
हर घर में जाना लाज़िम था
हर चूल्हे से खाया करते थे
अब,
वो गाँव वाला दो कमरों का बड़े आँगन वाला सादा घर
जिसमें दादी थी, अब दादी की तस्वीर भर है
जो साल में तीज त्यौहार खुलता है
वो नीम का पेड़ हमारे सपनों का महल
वो लोग जो उसकी छाया में नैतिकता सिखलाते थे
वो सब के दादा दादी अब नहीं रहे
साईकिल पता ही नहीं कब किसने बेच दी
गाँव के सूने रस्ते भी पक्के हो गये
अब पिता जी का उतना डर भी नहीं
कि दीवार कूदकर खेलने जायें
और खेतों में तार भी बाँध दी हैं
ना जा सकते हैं ना डाली खा सकते हैं
वो स्कूल भी बंद हो चुका
वो मास्टर भी पड़ोस वाला गाँव छोड़ गये
वो पैदल साथ जाने वाले दोस्त
जीवन जुटा रहे हैं कहीं न कहीं
दादी जिस प्लॉट में पानी लिये मिलती थी गर्मी में
वो ज़मीन तो है पर ना दादी हैं ना पानी और ना किसी को वो फिक्र ही
ग्रीटिंग पुरानी बात हो चले हैं
झूले और खुली जगह गाँव से ख़त्म हो चुके हैं
हर धर का आंगन दीवारों से पटा है
खाट भरना अब विलुप्त कला है
आँधी बारिश में बच्चे अब बस रील बनाया करते हैं
चूल्हे उठ चुके, रसोई जाना नामुमकिन
गाँव में भी अब दरवाज़े बंद पाया करते हैं
सरकंडों की गाड़ी को अब क्राफ़्ट बताया करते हैं
और महज़ तीन लोगों को ही परिवार जताया करते हैं

~ नवीन कुमार जन्नत